हिमाचल प्रदेश में कर्ज संकट लगातार बढ़ता जा रहा है और अब राज्य सरकार को अपने वित्तीय संकट को हल करने के लिए कुछ कठोर कदम उठाने पड़ रहे हैं। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने हाल ही में बिजली पर मिलने वाली सब्सिडी को त्यागने का ऐलान किया। इस निर्णय का उद्देश्य वित्तीय स्थिति को सुधारना है, लेकिन इससे कई सवाल भी उठ रहे हैं। आइए जानते हैं इस फैसले और राज्य के बढ़ते कर्ज के बारे में।
मुफ्त बिजली का वादा और उसका असफलता
मुख्यमंत्री सुक्खू ने चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश के लोगों से वादा किया था कि हर महीने 300 यूनिट तक की मुफ्त बिजली दी जाएगी। लेकिन अब, सत्ता में आने के दो साल बाद, सरकार को यह वादा निभाने में कठिनाई का सामना करना पड़ रहा है। मुख्यमंत्री ने खुद इस सब्सिडी को छोड़ने का फैसला किया है, और साथ ही अपने मंत्रियों और कांग्रेस विधायकों से भी यह कदम उठाने की अपील की है।
यह निर्णय सरकार द्वारा किए गए वित्तीय वादों के बीच एक बड़ा विरोधाभास पैदा कर रहा है। सुक्खू का कहना है कि जो लोग आर्थिक रूप से सक्षम हैं, उन्हें इस सब्सिडी को छोड़ देना चाहिए ताकि यह गरीबों को मिल सके। लेकिन सवाल यह उठता है कि चुनावी वादों और वर्तमान स्थिति में इतना बड़ा अंतर क्यों है?
हिमाचल प्रदेश का बढ़ता कर्ज
2022 में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के बाद से हिमाचल प्रदेश का कर्ज काफी बढ़ गया है। 2022 में राज्य का कर्ज ₹69,000 करोड़ था, जो अब बढ़कर ₹86,000 करोड़ हो चुका है और अनुमान है कि 2025 तक यह ₹95,000 करोड़ तक पहुंच सकता है। यह आंकड़े भारतीय रिज़र्व बैंक से प्राप्त हुए हैं, जो राज्य की वित्तीय स्थिति को उजागर करते हैं।
राज्य सरकार का कुल बजट का 40% हिस्सा कर्मचारियों की सैलरी पर खर्च होता है, 20% पेंशन और 20% कर्ज के ब्याज पर। इस स्थिति में, राज्य के पास विकास कार्यों के लिए बहुत कम पैसे बचते हैं।
क्या सरकारी कर्मचारियों और अमीरों से उम्मीदें हैं?
मुख्यमंत्री सुक्खू ने अपनी सरकार के मंत्रियों और विधायकों से यह अपील की है कि वे बिजली पर मिलने वाली सब्सिडी को छोड़ दें। उनका कहना है कि जिनके पास आर्थिक क्षमता है, उन्हें यह कदम उठाना चाहिए ताकि गरीबों को इसका लाभ मिल सके। हालांकि, यह कदम राज्य सरकार की ओर से एक बड़ी अपील के रूप में सामने आया है, जो अमीरों से समाज के लिए योगदान की उम्मीद कर रही है।
इसमें कोई शक नहीं कि यह कदम कुछ हद तक राज्य के वित्तीय संकट को हल करने में मदद कर सकता है, लेकिन क्या यह चुनावी वादों के साथ सुसंगत है? यह सवाल अब भी अनुत्तरित है।
क्या यह कदम सही दिशा में है?
मुख्यमंत्री का यह निर्णय एक प्रयास है जो सरकार को कर्ज के संकट से बाहर निकालने के लिए लिया गया है। लेकिन क्या यह एक स्थायी समाधान है? राज्य को वित्तीय संकट से बाहर निकालने के लिए केवल सब्सिडी को छोड़ने से समस्या का समाधान नहीं होगा। इसके लिए एक व्यापक आर्थिक योजना और राज्य के संसाधनों का सही उपयोग आवश्यक है।
यह कदम समाज के वित्तीय रूप से सक्षम वर्ग से जिम्मेदारी की उम्मीद करता है, लेकिन यह देखना होगा कि राज्य सरकार अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करती है और आगे बढ़ते हुए किस दिशा में कदम उठाती है।
हिमाचल प्रदेश में कर्ज संकट और मुफ्त बिजली की योजनाओं के बीच असंतुलन ने राज्य सरकार के सामने नई चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं। मुख्यमंत्री का यह कदम वित्तीय संकट से उबारने के लिए जरूरी हो सकता है, लेकिन यह तब ही सफल होगा जब राज्य सरकार अपनी योजनाओं को सही तरीके से लागू करने में सक्षम हो।
यदि राज्य सरकार कर्ज के बोझ से राहत पाने में सफल होती है, तो यह अन्य राज्यों के लिए भी एक उदाहरण बन सकता है कि कैसे वित्तीय संकट को निपटाया जा सकता है। हालांकि, यह पूरी प्रक्रिया समय ले सकती है और इसमें कई चुनौतियां भी आ सकती हैं।